इज़्तिराब-ए-दिल में आ जा कर दवाम आ ही गया ज़िंदगी को एक हालत पर क़याम आ ही गया इत्तिफ़ाक़न इस गली से ले बढ़ी उम्र-ए-रवाँ मैं तो समझा था कि अब मेरा मक़ाम आ ही गया हो गई आवारागर्दी बे-घरी की पर्दा-दार काम जितना हम को आता था वो काम आ ही गया बंदगी-आमोज़ बज़्म-ए-ज़िंदगी बेचारगी आदमी को जब ग़रज़ अटकी सलाम आ ही गया इंतिज़ाम-ए-रोज़-ए-इशरत और कर ऐ ना-मुराद ईद आती ही रही माह-ए-सियाम आ ही गया रिंद जाने रिंद का ईमान जाने शग़्ल-ए-रिंद पंद-गो के मुँह तक आना था हराम आ ही गया हो गया तर्क-ए-तलब का नाम इज्ज़-ए-हौसला जिस से हम डरते रहे वो इत्तिहाम आ ही गया अब कहें किस से कि उन से बात करना है गुनाह जब कलाम आया ज़बाँ पर ला-कलाम आ ही गया अव्वल अव्वल ख़ूब दौड़ी कश्ती-ए-अहल-ए-हवस आख़िर आख़िर डूब मरने का मक़ाम आ ही गया रिफ़अत-ए-हस्ती को पस्ती ने दिखाया आसमाँ झोंपड़ों तक ऊँचे महलों से सलाम आ ही गया आ गया है ऐ फ़लक ज़र्रों को एहसास-ए-ख़ुदी मैं समझता हूँ कि वक़्त-ए-इंतिक़ाम आ ही गया वो मुसलसल अब कहाँ ताबानी-ए-रोज़-ए-नशात रह-रव-ए-मग़रूर देखा वक़्त-ए-शाम आ ही गया हश्र से अच्छा रहा इक फ़ित्ना-ए-महशर-ख़िराम फिर तमाम आता न आता ना-तमाम आ ही गया तल्ख़-काम अफ़्ज़ाइश-ए-शीरीनी-ए-इशरत हुई आते आते हो के ज़हर-आलूद जाम आ ही गया बात क्या छुपती कि था अपना जुदा तर्ज़-ए-कलाम नाम आया भी न था 'नातिक़' कि नाम आ ही गया