जा के मिलता हूँ न अपना ही पता देता हूँ मैं उसे ही नहीं ख़ुद को भी सज़ा देता हूँ रोज़ दिन भर की मशक़्क़त से उठाता हूँ जिसे रात होते ही वो दीवार गिरा देता हूँ कौन है मुझ में जो बाहर नहीं आने पाता कब से मैं जिस्म के सहरा में सदा देता हूँ कौन सा कर्ब छलकता है हँसी से मेरी कैसे हँसता हूँ कि दुनिया को रुला देता हूँ ठोकरें खा के सँभलता नहीं लेकिन 'शाहिद' कम से कम राह के पत्थर तो हटा देता हूँ