जाने क्यूँ है ज़ेहन ग़ालिब कि मैं सोया हुआ हूँ आइना-ख़ाना-ए-अफ़्लाक में खोया हुआ हूँ हूँ मुसल्लस या कोई दायरा तजरीदी सा ज़ेहन-ए-यज़्दाँ में मैं तमसील सा गोया हुआ हूँ नद्दियाँ भर गईं लबरेज़ हैं दरिया सारे है ये बरसात की जल-थल कि मैं रोया हुआ हूँ जानता हूँ कि ये हसरत ही मिरी मंज़िल है शौक़ की तिश्ना ज़मीनों में जो बोया हुआ हूँ दर्द का क्या है मिरे छेद मुझे प्यारे हैं मैं तमन्नाओं के काँटों में पिरोया हुआ हूँ चीरती है जो सदा मौत से सन्नाटे को क्या ये तू है या मैं अपने ही से गोया हुआ हूँ मेरे चेहरे की दरख़शानी से मायूस न हो सिर्फ़ इतना है कि अश्कों से मैं धोया हुआ हूँ गश्त-ए-अफ़्लाक की हाजत मुझे क्यूँ कर होगी मैं ख़ुद अपने ही ख़लाओं में समोया हुआ हूँ 'आसिम' अब के जो मैं डूबूँ तो कुछ ऐसे निकलूँ जैसे लफ़्ज़ों के समुंदर में भिगोया हुआ हूँ