ज़ात का मेरी जो चेहरा होता मेरे घर में नहीं शीशा होता ये कुआँ इतना न गहरा होता जो किसी ने कभी झाँका होता तुम ने पौदे को था साए में रखा धूप में रखते तो ज़िंदा होता जो अँधेरों में उजाले पलते तो उजालों से अंधेरा होता तू हक़ीक़त था नज़र आया नहीं ख़्वाब बन जाता तो देखा होता तू जो आँसू न बना होता अगर आँख से मेरी न टपका होता उस के माँ बाप नहीं है शायद वर्ना उस में कहीं बच्चा होता तेरी महफ़िल ये न होती जो 'नवा' तू कहीं कोने में बैठा होता