ज़ात की सैर पे निकलूँ मिरी हिम्मत ही नहीं इस बयाबाँ से गुज़रने की जसारत ही नहीं ज़िंदगी मैं ने क़नाअत का हुनर सीख लिया अब तिरे नाज़ उठाने की ज़रूरत ही नहीं कोई शिकवा न शिकायत न सितम है न जफ़ा एक मुद्दत से तिरी हम पे इनायत ही नहीं जब भी मिलते हैं चमक उठती हैं आँखें उन की और दा'वा है उन्हें हम से मोहब्बत ही नहीं दिल तो क्या चीज़ है पत्थर भी पिघल जाए मगर जज़्बा-ए-इश्क़ में तेरे वो हरारत ही नहीं अपने अश्कों से बना देते बयाबाँ को चमन क्या करें हम को तो रोने की इजाज़त ही नहीं मो'तबर भी वही अरबाब-ए-नज़र में ठहरी जिस कहानी में कोई हर्फ़-ए-सदाक़त ही नहीं उस की याद आई है मत छेड़ मुझे बाद-ए-सबा तुझ से फिर बात करूँगी अभी फ़ुर्सत ही नहीं गुलशन-ए-दिल पे ख़िज़ाओं का तसल्लुत है 'निगार' कोई ख़्वाहिश कोई अरमाँ कोई चाहत ही नहीं