जाते हैं वहाँ से गर कहीं हम हिर-फिर के फिर आते हैं वहीं हम सद-हैफ़ कि कुंज-ए-बेकसी में कोई नहीं और हैं हमीं हम ख़ामोशी की मोहर है दहन पर हैं हल्का-ए-ग़म में जूँ नगीं हम आया न वो शोख़ और गए आह हसरत ही भरे तह-ए-ज़मीं हम तकते रहे जानिब-ए-दर ऐ वाए मर मर के ब-वक़्त-ए-वापसीं हम क्या क्या खींचे हैं आप को दूर टुक बैठे जो यार के क़रीं हम देख आईना हम से पूछे थे यूँ सच कहियो कि कैसे हैं हसीं हम क़िस्मत में तो हिज्र है 'ग़ज़ंफ़र' अब वो है तो आप में नहीं हम