ज़ौक़-ए-गुनाह ओ अज़्म-ए-पशेमाँ लिए हुए क्या क्या हुनर हैं हज़रत-ए-इंसाँ लिए हुए कुफ़्र ओ ख़िरद को रास न आएगी ज़िंदगी जब तक जुनूँ है मिशअल-ए-इन्साँ लिए हुए हूँ उन के सामने मगर उन पर नज़र नहीं सई-ए-तलब है अज़्म-ए-गुरेज़ाँ लिए हुए दिल को सुकून-ए-पस्ती-ए-साहिल से क्या ग़रज़ हर अज़्म है बुलंदी-ए-तूफ़ाँ लिए हुए गुलशन के दिल में आज भी महफ़ूज़ हैं वो फूल मुरझा गए जो दाग़-ए-बहारां लिए हुए आ ही गए वो अर्ज़-ए-नदामत को ऐ 'शकील' लालीँ लबों पे ख़ंदा-ए-गिर्यां लिए हुए