जब अचानक मिरे पहलू से मिरा यार उठा दर्द सीने में उठा और कई बार उठा ज़िंदगी बोझ न बन जाए तन-आसानी से अपने रस्ते में कभी ख़ुद कोई दीवार उठा सरसर-ए-वक़्त से ग़ाफ़िल था तू ऐ किब्र-नज़ाद गिर गई ख़ाक ज़मीं पर तिरी दस्तार उठा वहम-ए-नज़ारा में है आफ़ियत-ए-दीदा-ओ-दिल भूल कर भी न कभी पर्दा-ए-असरार उठा जिस से हो जाएँ मिरे चाहने वाले तक़्सीम ऐसी दीवार न कोई मिरे मे'मार उठा ख़ौफ़-ए-तादीब से मज़लूमों पे रोया न गया शाम-ए-मक़्तल में कोई भी न अज़ादार उठा दूर तक फैला हुआ दश्त-ए-बला है बाहर अपनी महफ़िल से न मुझ को मिरे दिलदार उठा नाज़-बरदार-ए-हुनर हो गए रुख़्सत कब के अब बिसात-ए-सुख़न-ओ-नग़्मा-ओ-अशआ'र उठा सामने तेरे ज़र-अफ़्शाँ है नई सुब्ह-ए-उमीद अपनी पलकों को ज़रा दीदा-ए-ख़ूँ-बार उठा कल 'फ़रासत' था यहाँ मज्मा-ए-याराँ तिरे साथ अब इसी शहर में तन्हाई के आज़ार उठा