जब भी फ़ौलाद पिघल जाता है जैसा मंज़ूर हो ढल जाता है जिस तरह तीर कमाँ से निकले उस तरह वक़्त निकल जाता है वक़्त के दाओ से बचने वालो वक़्त का दाव तो चल जाता है किसी तक़दीर में लिक्खी हो मगर कब तिरी ज़ुल्फ़ का बल जाता है फूल छूता है वो होता है शाद आग छूता है वो जल जाता है वो किसी छोटे से बच्चे की तरह बात में रंग बदल जाता है उन के अल्ताफ़-ए-करम के सदक़े हाँ बुरा वक़्त भी टल जाता है ‘मंज़िल’-ए-ज़ार को पूछो क्या हो वो तो बातों में बहल जाता है