जब भी गुज़रे हुए लम्हात को दोहराते हैं हम ख़ुद अपने ही ख़यालों में उलझ जाते हैं भीड़ इतनी है कि नज़रें नहीं जमने पातीं और मंज़र हैं कि तेज़ी से बदल जाते हैं कुछ दिनों से जो ये चाहा है कि मंज़िल न मिले मेरी सम्त आते हुए हादसे कतराते हैं इस रिवायत से बहुत जी का ज़ियाँ होता है अब तो हम पुर्सिश-ए-अहवाल से घबराते हैं ख़ुद से उकताए हुए बज़्म से कतराए हुए अब मिरे साथ कई लोग नज़र आते हैं जो भी रखते हैं यहाँ क़ुव्वत-ए-इज़हार-ए-नुमू बीज वो सख़्त चटानों पे भी जम जाते हैं कभी तन्हा नहीं आते हैं पुराने लम्हे कितने ही फूलों की हम-राह महक लाते हैं