जब भी कोई किताब लिक्खूंगा तेरे नाम इंतिसाब लिक्खूंगा दिल तो कहता नहीं मगर उस को मस्लहत से जनाब लिक्खूंगा हाथ तो छोड़ गर्दिश-ए-दौराँ उस के ख़त का जवाब लिक्खूंगा आइने पर तो मेरा ज़ोर नहीं मैं तुझे ला-जवाब लिक्खूंगा तेरा हक़ है तू जो कहे मुझ को मैं तो तुझ को गुलाब लिक्खूंगा आएगी जब बसंत-पूर्निमा मैं किसी का 'शबाब' लिक्खूंगा