जब भी शम-ए-तरब जलाई है आँच महरूमियों की आई है रास्ते इतने बे-कराँ तो न थे जुस्तुजू कितनी दूर लाई है ज़हमत-ए-जुस्तुजू से क्या होगा बू-ए-गुल किस के हाथ आई है कितनी रंगीनियों में तेरी याद किस क़दर सादगी से आई है कह के जान-ए-ग़ज़ल तुझे हम ने अपनी कम-माइगी छुपाई है जब भी 'जावेद' छेड़ दी है ग़ज़ल बात वारफ़्तगी तक आई है