जब हर नज़र हो ख़ुद ही तजल्ली-नुमा-ए-ग़म फिर आदमी छुपाए तो कैसे छुपाए ग़म उस वक़्त तक मिली न मुझे लज़्ज़त-ए-हयात जब तक रहा ज़माने में ना-आश्ना-ए-ग़म मेरी निगाह-ए-शौक़ ही ग़म का सबब नहीं उन की निगाह-ए-नाज़ भी है रहनुमा-ए-ग़म सौदा-ए-इश्क़ दर्द-ए-मोहब्बत जफ़ा-ए-दोस्त हम ने ख़ुशी के वास्ते क्या क्या उठाए ग़म शायद ये है करिश्मा फ़रेब-ए-नशात का घबरा के आ गई है लबों पर दुआ-ए-ग़म 'फ़रहत' की हर हँसी में हैं आँसू छुपे हुए उस की ख़ुशी भी ओढ़े हुए है रिदा-ए-ग़म