जब हुस्न-ए-बे-मिसाल पर इतना ग़ुरूर था आईना देखना तुम्हें फिर क्या ज़रूर था छुप-छुप के ग़ैर तक तुम्हें जाना ज़रूर था था पीछे पीछे मैं भी मगर दूर दूर था मुल्क-ए-अदम की राह थी मुश्किल से तय हुई मंज़िल तक आते आते बदन चूर-चूर था दो घूँट भी न पी सके और आँख खुल गई फिर बज़्म-ए-ऐश थी न वो जाम-ए-सुरूर था वाइज़ की आँखें खुल गईं पीते ही साक़िया ये जाम-ए-मय था या कोई दरिया-ए-नूर था क्यूँ बैठे हाथ मलते हो अब 'यास' क्या हुआ इस बेवफ़ा शबाब पर इतना ग़ुरूर था