जब जहाँ में पेट सब का ही है भरती रोटी मुँह चिढ़ाती रोज़-ओ-शब फिर क्यों मिरा ही रोटी रोज़ चूल्हे में जलाता है जो ख़ुद-दारी को भूक फिर उस की मिटाए कैसे उस की रोटी उम्र इतनी थी कि रोटी माँ के हाथों खाता मुझ को तो उस उम्र में खाने लगी थी रोटी नाचती है भूक जब भी चार दिन आँगन में तब लहू की मेरे क़ीमत सिर्फ़ लगती रोटी जिस ने औरों के ख़ज़ाने ज़िंदगी भर थे भरे मरते मरते वो भी चिल्लाया था रोटी रोटी ख़ून उस का खेत में बहता है जैसे पानी बनती है जिस के पसीने से सभी की रोटी लोग तो करते हैं ईमाँ का भी सौदा अक्सर दाँव पे लगती है जब उन की ये प्यारी रोटी दौर-ए-ग़ुर्बत में भी करता है 'शफ़क़' ये दावा मर भी जाए तो न खाए शाइरी की रोटी