जब जोश-ए-बहाराँ था उन चाँदनी रातों में हर ज़र्रा गुलिस्ताँ था उन चाँदनी रातों में जब अपनी अदाओं से इक ज़ोहरा-जबीं पैकर ग़ारत-गर-ए-ईमाँ था उन चाँदनी रातों में जन्नत थी बहुत दिलकश शादाब नज़ारों की हर लम्हा रग-ए-जाँ था उन चाँदनी रातों में जब सर्व की सफ़ का वो मेहराब-नुमा साया तस्वीर-ए-शबिस्ताँ था उन चाँदनी रातों में जब फूल सा वो चेहरा उस जान-ए-बहाराँ का तक़्दीस का उनवाँ था उन चाँदनी रातों में जब वक़्त दमकती सी शाख़ों पे सनोबर की इक दीदा-ए-हैराँ था उन चाँदनी रातों में भीगी हुई आँखों का मौहूम इशारा भी इक ख़ुल्द-बदामाँ था उन चाँदनी रातों में एजाज़-ए-मोहब्बत था अल्लाह की रहमत थी क़िस्मत पे मैं नाज़ाँ था उन चाँदनी रातों में मुद्दत से नहीं देखा उस हुस्न-ए-गुलाबी को शाइ'र का जो मेहमाँ था उन चाँदनी रातों में