जब कभी यूँही सनक जाता हूँ मैं शायरी में दख़्ल फ़रमाता हूँ मैं ढूँड लेता हूँ रदीफ़-ओ-क़ाफ़िए बैठ कर फिर शे'र फ़रमाता हूँ मैं ढंग की मिल जाए गर कोई ज़मीन दूर तक फिर पैर फैलाता हूँ मैं हिज्र में बिगड़ी है अपनी शक्ल यूँ देख कर आईना डर जाता हूँ मैं जब कोई कहता है तुम से प्यार है पेड़ पर घबरा के चढ़ जाता हूँ मैं अब नसीहत का असर होता नहीं किस क़दर नासेह को समझाता हूँ मैं ख़ूब करता हूँ मैं सब पर ए'तिबार और धोका बारहा खाता हूँ मैं ख़ल्क़ को मसरूर करना काम है और मियाँ 'मसरूर' कहलाता हूँ मैं