जब कहा और भी दुनिया में हसीं अच्छे हैं क्या ही झुँझला के वो बोले कि हमीं अच्छे हैं किस भरोसे ये करें तुझ से वफ़ा की उम्मीद कौन से ढंग तिरे जान-ए-हज़ीं अच्छे हैं ख़ाक में आह मिला कर हमें क्या पूछते हो ख़ैर जिस तौर हैं हम ख़ाक-नशीं अच्छे हैं दिल में क्या ख़ाक जगह दूँ तिरे अरमानों को कि मकाँ है ये ख़राब और मकीं अच्छे हैं मुझ को कहते हैं रक़ीबों की बुराई सुन कर वो नहीं तुम से बुरे बल्कि कहीं अच्छे हैं बुत वो काफ़िर हैं कि ऐ 'दाग़' ख़ुदा उन से बचाए कौन कहता है ये ग़ारत-गर-ए-दीं अच्छे हैं