जब कहा मैं ने कि मर मर के बचे हिज्र में हम हँस के बोले तुम्हें जीना था तो मर क्यूँ न गए हम तो अल्लाह के घर जा के बहुत पछताए जान देनी थी तो काफ़िर तिरे घर क्यूँ न गए सू-ए-दोज़ख़ बुत-ए-काफ़िर को जो जाते देखा हम ने जन्नत से कहा हाए उधर क्यूँ न गए पहले उस सोच में मरते थे कि जीते क्यूँ हैं अब हम इस फ़िक्र में जीते हैं कि मर क्यूँ न गए ज़ाहिदो क्या सू-ए-मशरिक़ नहीं अल्लाह का घर का'बे जाना था तो तुम लोग उधर क्यूँ न गए तू ने आँखें तो मुझे देख के नीची कर लीं मेरे दुश्मन तिरी नज़रों से उतर क्यूँ न गए सुन के बोले वो मिरा हाल-ए-जुदाई 'मुज़्तर' जब ये हालत थी तो फिर जी से गुज़र क्यूँ न गए