जब ख़िज़ाँ के चेहरे पीले हो गए बाग़ के सब फल रसीले हो गए ज़िक्र तेरा जब छिड़ा जान-ए-सुख़न तल्ख़ लहजे भी सुरीले हो गए जब चढ़ी उस पर जवानी की परत ज़ाविए उस के कटीले हो गए तेरी फ़ुर्क़त ने घुला कर रख दिया मेरे सब मल्बूस ढीले हो गए 'मीर' का दीवान घर में क्या रखा बाम-ओ-दर अश्कों से गीले हो गए चंद ज़र्रे बद-गुमानी के थे जो नफ़रतों के अब वो टीले हो गए फ़ासले जो थे हमारे दरमियाँ क़ुर्बतों के अब वसीले हो गए हम ने जो आसानियों के गुल चुने ख़ार से बढ़ कर नुकीले हो गए