जब ख़ुदा को जहाँ बसाना था तुझ को ऐसा नहीं बनाना था मेरे घर तेरा आना जाना था वो भी ऐ यार क्या ज़माना था फिर गए आप मेरे कूचे से दो क़दम पर ग़रीब-ख़ाना था जो न समझे कि आशिक़ी क्या है उस से बे-कार दिल लगाना था आए थे बख़्त आज़माने हम आप को तेग़ आज़माना था ऐ सितमगार क़ब्र-ए-आशिक़ पर चंद आँसू तुझे बहाना था तू ने रहने दिया पस-ए-दीवार वर्ना अपना कहाँ ठिकाना था अब जहाँ पर है शैख़ की मस्जिद पहले उस जा शराब-ख़ाना था दख़्ल अहल-ए-रिया न रखते थे पाक-बाज़ों का आना जाना था बज़्म में ग़ैर को न बुलवाते आप को जब हमें बुलाना था वो चमन अब ख़िज़ाँ-रसीदा है बुलबुलों का जहाँ तराना था सुनते हैं वो शजर भी सूख गया जिस पे सय्याद आशियाना था दिल न देते उसे तो क्या करते ऐ 'असर' दुख हमें उठाना था