जब ख़यालों में हुमा के पर जला देती हूँ मैं फ़िक्र की परवाज़ के जौहर जला देती हूँ मैं ख़ौफ़-ए-रुस्वाई से घबरा कर जला देती हूँ मैं चिट्ठियाँ फ़ौरन तिरी पढ़ कर जला देती हूँ मैं करवटें लेता है तेरी याद में जलता बदन नींद जब आती नहीं बिस्तर जला देती हूँ मैं रात की तारीकियों में घर मिरा रौशन रहे इक दिया दहलीज़ के बाहर जला देती हूँ मैं बारहा बर्क़-ए-तपाँ को किस लिए तकलीफ़ दूँ अपने ही हाथों से अपना घर जला देती हूँ मैं