जब ख़यालों में तुम्हें पास बिठाऊँ अक्सर मीर के शे'र हों लब पर उन्हें गाऊँ अक्सर दफ़्न कर के सभी वा'दों को जहाँ बिछड़े थे वो शजर देखने जाती हूँ मैं गाँव अक्सर मैं गिला कैसे करूँ तुम ने मुझे रौंदा है अपने साए पे भी आ जाता है पाँव अक्सर जब तिरे बा'द तिरा हिज्र सताए मुझ को तुझ को मैं याद करूँ भूल भी जाऊँ अक्सर कैसा रिश्ता है मिरा तुम से मुझे इल्म नहीं तुम अगर रूठो तो मैं ख़ुद को मनाऊँ अक्सर मेरा दा'वा है तुझे छोड़ दिया है मैं ने फिर तिरा ज़िक्र ही क्यूँ शे'रों में लाऊँ अक्सर 'आफ़िया' आइना देखा ही नहीं मुद्दत से ख़ुद से मैं बा'द तिरे आँख चुराऊँ अक्सर