जब कोई ज़ख़्म मिरे दिल पे नया लगता है तब मुझे हौसला जीने का हरा लगता है इश्क़ के दिन थे कि नफ़रत भी भली लगती थी अब कोई प्यार से देखे तो बुरा लगता है जाने क्यों अब मैं किताबें भी अगर पढ़ता हूँ इन में भी तेरे ही हाथों का लिखा लगता है न मिला जिस को हर इक गाम पे ढूँड आया मैं वो तो मुझ को मिरे अंदर ही छुपा लगता है मैं तो इस शहर में जीता हूँ कि 'इरशाद' जहाँ ख़ैरियत पूछने वाला भी डरा लगता है