जब कोई सच बात छुपानी पड़ती है तब झूटी इक बात बनानी पड़ती है अंदर अंदर कितने ही हम ज़ख़्मी हों चेहरे पर मुस्कान सजानी पड़ती है ए'तिमाद भी हद से ज़ियादा ठीक नहीं कभी कभी तो मुँह की ख़ानी पड़ती है अरमानों की लाश उठा कर काँधों पर किसी किसी को उम्र बितानी पड़ती है कभी कभी कुछ याद भी रखना पड़ता है कभी कभी हर बात भुलानी पड़ती है हम से ही दहशत-गर्दी है और हमें सब से ज़ियादा जान गँवानी पड़ती है थपकी दे कर हम को तो 'मश्कूर' यहाँ तेरी तमन्ना रोज़ सुलानी पड़ती है