जब ले के हथेली पर हम जान निकलते हैं ज़ुल्मत में उजालों के इम्कान निकलते हैं फिर ले के हिसाब-ए-दिल पछताना पड़ा उस को कुछ उस पे हमारे ही एहसान निकलते हैं ये शहर रहा होगा शाइस्ता मिज़ाजों का इस शहर के मलबे से गुल-दान निकलते हैं ऐ अहल-ए-नज़र तेरे ख़ुतबात पे भारी हैं दीवाने के मुँह से जो हिज़्यान निकलते हैं