जब न आने की क़सम आप ने खा रक्खी थी मैं ने फिर किस के लिए शम्अ जला रक्खी थी रख दिया उन को भी झोली में सितमगारों की मैं ने जिन हाथों से बुनियाद-ए-वफ़ा रक्खी थी जानता कौन भला कैसे किसी के हालात वक़्त ने बीच में दीवार उठा रक्खी थी इस लिए चल न सका कोई भी ख़ंजर मुझ पर मेरी शह-रग पे मिरी माँ की दुआ रक्खी थी किस लिए मुझ को न सूली पे चढ़ाया जाता मुंसिफ़ों ने ये मिरे सच की सज़ा रक्खी थी