जब नज़र उस की आन पड़ती है ज़िंदगी तब धियान पड़ती है झेल लेते हैं आशिक़ ऐ फ़रहाद जिस के सर जैसी आन पड़ती है है जफ़ा से ग़रज़ उसे इतनी कि वफ़ा इम्तिहान पड़ती है नज़र उन मह-विशाँ की है ज़ालिम क्या ग़ज़ब आन-बान पड़ती है क़द्द-ए-ज़ाहिद नज़र में चिल्ले बाद उतरी सी कुछ कमान पड़ती है बात इस दिल के दर्द की यारो गुफ़्तुगू में निदान पड़ती है एक के मुँह से जिस घड़ी निकली फिर तो सौ की ज़बान पड़ती है लेकिन इतना कोई कहे मुझ से कभू उस के भी कान पड़ती है बे-सबाती ज़माने की नाचार करनी मुझ को बयान पड़ती है गर्म-जोशी-ए-दोस्ताँ ब-नज़र आतिश-ए-कारवान पड़ती है दिल से पूछा ये मैं कि इश्क़ की राह किस तरफ़ मेहरबान पड़ती है कहा उन ने कि ने ब-हिन्दुस्ताँ ने सू-ए-असफ़हान पड़ती है ये दो-राहा जो कुफ़्र ओ दीं का है दोनों के दरमियान पड़ती है मंज़िलत शेर की तिरे 'सौदा' यूँ ब-वहम-ओ-गुमान पड़ती है नहीं 'ईसा' तू पर सुख़न से तिरे तन-ए-बे-जाँ में जान पड़ती है