जब नशात-ए-अलम नहीं होता जाम-ए-जम जाम-ए-जम नहीं होता जाने क्यूँ तेरी बे-रुख़ी से भी दिल को अब कोई ग़म नहीं होता आ गया हूँ तिरे हुज़ूर मगर फ़ासला फिर भी कम नहीं होता वो मसर्रत तलाश करता है जिस को इरफ़ान-ए-ग़म नहीं होता उम्र भर तुझ को देखने पर भी ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा कम नहीं होता क्या कहूँ दिल को क्या हुआ 'रिफ़अत' दामन-ए-चश्म नम नहीं होता