जब रक़ीबों का सितम याद आया कुछ तुम्हारा भी करम याद आया कब हमें हाजत-ए-परहेज़ पड़ी ग़म न खाया था कि सम याद आया न लिखा ख़त कि ख़त-ए-पेशानी मुझ को हंगाम-ए-रक़म याद आया शोला-ए-ज़ख़्म से ऐ सैद-फ़गन दाग़-ए-आहू-ए-हरम याद आया ठहरे क्या दिल कि तिरी शोख़ी से इज़्तिराब-ए-प-ए-हम याद आया ख़ूबी-ए-बख़्त कि पैमान-ए-अदू उस को हंगाम-ए-क़सम याद आया खुल गई ग़ैर से उल्फ़त उस की जाम-ए-मय से मुझे जम याद आया वो मिरा दिल है कि ख़ुद-बीनों को देख कर आइना कम याद आया किस लिए लुत्फ़ की बातें हैं फिर क्या कोई और सितम याद आया ऐसे ख़ुद-रफ़्ता हो ऐ 'शेफ़्ता' क्यूँ कहीं उस शोख़ का रम याद आया