जब रौशनी न पा सके मेहर-ओ-क़मर से हम ख़ुद बे-नियाज़ हो गए शाम-ओ-सहर से हम इस इम्तिहान में भी है तेरा करम शरीक हंस कर गुज़र रहे हैं रह-ए-पुर-ख़तर से हम दुनिया को हम दिखाएँगे मेआ'र-ए-बंदगी क़िस्मत बना के उट्ठेंगे अब तेरे दर से हम जिस की नवाज़िशों पे है मौक़ूफ़ ज़िंदगी क्या होगा गिर गए अगर उस की नज़र से हम ज़िंदा हैं तो बनेगा इसी जा फिर आशियाँ डरते नहीं हैं फ़ित्ना-ए-बर्क़-ओ-शरर से हम दुनिया से दूर हो के पता उस का पा गए वर्ना थे अपने आप से भी बे-ख़बर से हम अल्लाह रक्खे ख़ंदा-ए-दीवानगी से दूर हैं आश्ना मआल-ए-ग़म-ए-मो'तबर से हम 'कशफ़ी' बना दिया उसे आईना-ए-बहार गुज़रे किसी की याद में जिस रहगुज़र से हम