जब से असीर-ए-ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर हो गया में बे-नियाज़-ए-हल्क़ा-ए-ज़ंजीर हो गया जाता कहाँ भला तिरी महफ़िल को छोड़ कर मैं अपने आप पाँव की ज़ंजीर हो गया नूर-ए-जहाँ कोई न कोई यूँ तो सब की थी दौलत से एक शख़्स जहाँगीर हो गया मुझ में रची हुई तिरी ख़ुशबू थी इस लिए बढ़ कर अदू भी मुझ से बग़ल-गीर हो गया फिर बाँध ली किसी से उम्मीद-ए-वफ़ा 'क़तील' फिर इक महल हवाओं में ता'मीर हो गया