जब से बाँधा है तसव्वुर उस रुख़-ए-पुर-नूर का सारे घर में नूर फैला है चराग़-ए-तूर का बख़्त-ए-वाज़ूँ से जले क्यूँ दिल न मुझ महरूर का मर्हम-ए-काफ़ूर से मुँह आ गया नासूर का इस क़दर मुश्ताक़ हूँ ज़ाहिद ख़ुदा के नूर का बुत भी बनवाया कभी मैं ने तो संग-ए-तूर का तुझ को लाए घर में जन्नत को जलाया रश्क से हम-बग़ल तुझ से हुए पहलू दबाया हूर का गोेर-ए-काफ़िर किस लिए है तीरा-ओ-तार इस क़दर पड़ गया साया मगर मेरी शब-ए-दीजूर का हुस्न-ए-यूसुफ़ और तेरे हुस्न में इतना है फ़र्क़ चोट ये नज़दीक की है वार था वो दौर का क़स्र-ए-तन बिगड़ा किसी का गोरकन की बन पड़ी घर किसी का गिर पड़ा घर बिन गया मज़दूर का चेहरा-ए-जानाँ से शर्मा कर छुपाया ख़ुल्द में ख़ामा-ए-तक़दीर ने खींचा जो नक़्शा हूर का हाजत-ए-मुश्शाता क्या रुख़्सार-ए-रौशन के लिए देख लो गुल काटता है कौन शम-ए-तूर का ज़ुल्फ़-ओ-रू-ए-यार से नैरंग-ए-क़ुदरत है अयाँ महर के पंजे में है दामन शब-ए-दीजूर का ख़ाकसारी कर जो हो मंज़ूर आँखों में जगह ख़ाक हो कर सुर्मा बिन जाता है पत्थर तौर का ग़ाफ़िलों के कान कब खुलते हैं सन कर शोर-ए-हश्र सोने वालों को जगा सकता नहीं ग़ुल दूर का पूछ लेना सब वतन का हाल ऐ अहल-ए-अदम बैठ लेने दो ज़रा आता हूँ उट्ठा दौर का इज्ज़ करते हैं अदू-ए-जान से भी ख़ासान-ए-हक़ झुक गया सर आगे पा-ए-दार पर मंसूर का मौत क्या आई तप-ए-फ़ुर्क़त से सेहत हो गई दम निकलने से बदन ठंडा हुआ रंजूर का जाते हैं मय-ख़ाना-ए-आलम से हम सू-ए-अदम कह दो अज़-ख़ुद-रफ़्तगी से है इरादा दूर का मूज़ियों को हादसों से दहर के क्या ख़ौफ़ है बारिश-ए-बाराँ से घर गिरता नहीं ज़ंबूर का चश्म-ए-साग़र बे-सबब हर दम लहू रोती नहीं मुग़्बचों से साक़िया दिल फट गया अंगूर का जाते हैं मय-ख़ाना-ए-आलम से हम सू-ए-अदम कह दो अज़-ख़ुद-रफ़्तगी से है इरादा दूर का की नज़र जिस पर कुदूरत से रहा ख़ामोश वो है असर गर्द-ए-निगाह-ए-यार में सिन्दूर का जल्वा-ए-माशूक़ हर जा है बसीरत हो अगर किर्मक-ए-शब-ताब में आलम है शम-ए-तूर का मर के यारान-ए-अदम के पास पहुँचूँगा 'अमीर' चलते चलते जान जाएगी सफ़र है दूर का