जब से ख़त है सियाह-ख़ाल की थांग तब से लुटती है हिन्द चारों दाँग बात अमल की चली ही जाती है है मगर औज-बिन-उनुक़ की टाँग बन जो कुछ बन सके जवानी में रात तो थोड़ी है बहुत है साँग इश्क़ का शोर कोई छुपता है नाला-ए-अंदलीब है गुल-बाँग उस ज़क़न में भी सब्ज़ी है ख़त की देखो जीधर कुएँ पड़ी है भाँग किस तरह उन से कोई गर्म मिले सीम-तन पिघले जाते हैं जों राँग चली जाती है हसब क़द्र-ए-बुलंद दूर तक उस पहाड़ की है डाँग तफ़रा बातिल था तूर पर अपने वर्ना जाते ये दौड़ हम भी फलाँग मैं ने क्या उस ग़ज़ल को सहल किया क़ाफ़िए ही थे उस के ऊट-पटाँग 'मीर' बंदों से काम कब निकला माँगना है जो कुछ ख़ुदा से माँग