जब से तेरी आँख हम से फिर गई हल्का-ए-ग़म में तबीअ'त घिर गई फ़ौज-ए-मिज़्गाँ में मेरे ख़ूँ के लिए चश्म की गर्दिश से कौड़ी फिर गई मोहतसिब की आँख पर जब से चढ़ी दुख़्त-ए-रज़ शीशे के दिल से गिर गई ना-तवानों के लिए तूफ़ान क्या क़तरा-ए-शबनम में जूही तर गई साक़िया कोई बला था मोहतसिब ख़ैरियत गुज़री जो ख़ुम के सिर गई मुर्दा मेरा देख कर बोला वो शोख़ क्यों 'नसीम' अब आँख तेरी फिर गई