जब से वो कह के गए हैं कि अभी आते हैं कोई आता है समझता हूँ वही आते हैं बर्ग-ओ-बार आते हैं शाख़ों में गुल-ओ-ग़ुंचा भी वो जब आते हैं चमन में तो सभी आते हैं अपनी क़िस्मत का सितारा तो नहीं गर्दिश में न ख़बर आती है उन की न वही आते हैं इश्क़-ए-सादिक़ ने झुकाया सर-ए-हुस्न-ए-मग़रूर जिन को दावा था न आने का वही आते हैं अश्क बन कर कभी आते हैं कभी बन के हँसी अब मोहब्बत में बहर-शक्ल वही आते हैं अब तो इक भीड़ चला करती है उन के हम-राह बात भी कर नहीं सकते जो कभी आते हैं पीने जाते हैं सर-ए-शाम 'नज़ीर' एक बुज़ुर्ग और कुछ रात ढले बन के वली आते हैं