जब सोज़ दुआ में ढलता है होंटों पे दीपक जलता है मस्जिद की ज़मीं पे सर्व-ए-दुआ आहों की लू में फलता है इक सज्दा दिल के माथे पर हर पिछली रात मचलता है पलकों पे लरज़ते अश्कों से दरवेश का रूप उजलता है ग़ुस्से को पी के रिंद रज़ा नश्शे में फूल उगलता है ख़्वाहिश के ख़ूँ की बरखा से किरदार का बूटा पलता है अल्लाह से आँख लड़ाने पे शैताँ को इंसाँ खलता है