जब तिरे हिज्र के आसार नज़र आते हैं मुझ को फूलों में भी फिर ख़ार नज़र आते हैं मूँद लीं इस लिए बर्बादी पे आँखें मैं ने मेरे अपने ही ज़िम्मेदार नज़र आते हैं या वही बुग़्ज़ वही कीना वही नफ़रत है या मोहब्बत के भी आसार नज़र आते हैं मैं हवाओं के तआ'क़ुब में भटक जाती हूँ फिर इशारे मुझे बे-कार नज़र आते हैं मैं बुलंदी से गिराई गई जिस मेहनत से इस में अपनों के भी किरदार नज़र आते हैं शश-जिहत दुख के हैं अम्बार ही पोशीदा यहाँ जिस क़दर हैं पस-ए-दीवार नज़र आते हैं आँख लगती है तो मैं ख़ौफ़ से उठ जाती हूँ ख़्वाब में क़ाफ़िले ख़ूँ-ख़ार नज़र आते हैं