जब तिरी ज़ात को फैला हुआ दरिया समझूँ ख़ुद को भीगी हुई रातों में अकेला समझूँ नाम लिक्खूँ मैं तिरा दूर ख़लाओं में कहीं और हर लफ़्ज़ को फिर चाँद से प्यारा समझूँ याद की झील में जब अक्स नज़र आए तिरा आँख से अश्क भी टपके तो सितारा समझूँ दस्तकें देता रहा रात जो गलियों में उसे ज़ेहन आवारा कहूँ नींद का मारा समझूँ वो जो आ जाएँ मिरे पास तो उन को 'फ़रहत' दुख की बढ़ती हुई बारात का दूल्हा समझूँ