जब तुझे याद करें कार-ए-जहाँ खेंचता है और फिर इश्क़ वही कोह-ए-गिराँ खेंचता है किसी दुश्मन का कोई तीर न पहुँचा मुझ तक देखना अब के मिरा दोस्त कमाँ खेंचता है अहद-ए-फ़ुर्सत में किसी यार-ए-गुज़िश्ता का ख़याल जब भी आता है तो जैसे रग-ए-जाँ खेंचता है दिल के टुकड़ों को कहाँ जोड़ सका है कोई फिर भी आवाज़ा-ए-आईना-गिराँ खेंचता है इंतिहा इश्क़ की कोई न हवस की कोई देखना ये है कि हद कौन कहाँ खेंचता है खिंचते जाते हैं रसन-बस्ता ग़ुलामों की तरह जिस तरफ़ क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ खेंचता है हम तो रहवार-ए-ज़बूँ हैं वो मुक़द्दर का सवार ख़ुद ही महमेज़ करे ख़ुद ही इनाँ खेंचता है रिश्ता-ए-तेग़-ओ-गुलू अब भी सलामत है 'फ़राज़' अब भी मक़्तल की तरफ़ दिल सा जवाँ खेंचता है