जब ये आलम हो तो लिखिए लब-ओ-रुख़्सार पे ख़ाक उड़ती है ख़ाना-ए-दिल के दर-ओ-दीवार पे ख़ाक तू ने मिट्टी से उलझने का नतीजा देखा डाल दी मेरे बदन ने तिरी तलवार पे ख़ाक हम ने मुद्दत से उलट रक्खा है कासा अपना दस्त-ए-दादार तिरे दिरहम-ओ-दीनार पे ख़ाक पुतलियाँ गर्मी-ए-नज़्ज़ारा से जल जाती हैं आँख की ख़ैर मियाँ रौनक़-ए-बाज़ार पे ख़ाक जो किसी और ने लिक्खा है उसे क्या मालूम लौह-ए-तक़दीर बजा चेहरा-ए-अख़बार पे ख़ाक चार दीवार-ए-अनासिर की हक़ीक़त कितनी ये भी घर डूब गया दीदा-ए-ख़ूँ-बार पे ख़ाक पा-ए-वहशत ने अजब नक़्श बनाए थे यहाँ ऐ हवा-ए-सर-ए-सहरा तिरी रफ़्तार पे ख़ाक ये ग़ज़ल लिख के हरीफ़ों पे उड़ा दी मैं ने जम रही थी मिरे आईना-ए-अशआर पे ख़ाक ये भी देखो कि कहाँ कौन बुलाता है तुम्हें महज़र-ए-शौक़ पढ़ो महज़र-ए-सरकार पे ख़ाक आप क्या नक़द-ए-दो-आलम से ख़रीदेंगे इसे ये तो दीवाने का सर है सर-ए-पिंदार पे ख़ाक