जबीं पर ख़ाक है ये किस के दर की बलाएँ ले रहा हूँ अपने सर की उभर आई हैं फिर चोटें जिगर की सलामत बर्छियाँ तिरछी नज़र की क़यामत की हक़ीक़त जानता हूँ ये इक ठोकर है मेरे फ़ित्नागर की किया मजबूर आईन-ए-वफ़ा ने न करनी थी वफ़ा तुम से मगर की न मानोगे न मानोगे हमारी उधर हो जाएगी दुनिया इधर की हुई अन-बन किसी से मुझ पे बरसे बलाएँ मेरे सर दुश्मन के सर की न तेरे हुस्न-ए-बे-परवा की ग़ायत न कोई हद मिरे ज़ौक़-ए-नज़र की