जबीं पे गर्द है चेहरा ख़राश में डूबा हुआ ख़राब जो अपनी तलाश में डूबा क़लम उठाया तो सर पर कुलाह-ए-कज न रही ये शहरयार भी फ़िक्र-ए-मआश में डूबा झले है पंखा ये ज़ख़्मों पे कौन आठ पहर मिला है मुझ को नफ़स इर्तिआश में डूबा इसे न क्यूँ तिरी दिलदारी-ए-नज़र कहिए वो नेश्तर जो दिल-ए-पाश-पाश में डूबा 'फ़ज़ा' है ख़ालिक़-ए-सुब्ह-ए-हयात फिर भी ग़रीब कहाँ कहाँ न उफ़ुक़ की तलाश में डूबा