जबीं-ए-संग पे लिक्खा मिरा फ़साना गया मैं रहगुज़र था मुझे रौंद कर ज़माना गया नक़ाब ओढ़ के आए थे रात के क़ज़्ज़ाक़ पिघलती शाम से सब धूप का ख़ज़ाना गया किसे ख़बर वो रवाना भी हो सका कि नहीं तुम्हारे शहर से जब उस का आब-ओ-दाना गया वो चल दिया तो निगाहों से कि दिलों से ग़ुरूर लबों से ज़हर हवाओं से ताज़ियाना गया ये जानता हूँ कि तू ने लिया था रोक उसे मगर वो आतिशीं आँसू मुझे जला न गया मैं एक डोलता सागर मुझे उठाता कौन घटा उठा के चली थी मगर चला न गया कहाँ गया मैं बिछड़ कर किसे ख़बर होगी जो एक बार यहाँ से हुआ रवाना गया