जबीन-ए-शौक़ इतनी तो शरीक-ए-कार हो जाए जहाँ सज्दा करूँ मैं आस्तान-ए-यार हो जाए सबा बरहम अगर ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-यार हो जाए क़यामत करवटें लेती हुई बेदार हो जाए बना दो जिस को तुम मजबूर वो मजबूर बन जाए जिसे मुख़्तार तुम कह दो वही मुख़्तार हो जाए तुझे मा'लूम क्या ऐ ख़्वाब-ए-हस्ती देखने वाले वही हस्ती है हस्ती जो निसार-ए-यार हो जाए जो हो जाए यक़ीं आएँगे वो रस्म-ए-अयादत को न हो बीमार भी कोई तो वो बीमार हो जाए गुज़र जाए हुदूद-ए-मा'रिफ़त से तालिब-ए-जल्वा जो बे-पर्दा किसी साअ'त जमाल-ए-यार हो जाए हुकूमत है जुनूँ पर हस्त मंशा तेरे वहशी की अभी दीवाना बन जाए अभी होश्यार हो जाए फ़क़त इतनी इताअ'त चाहती है रहमत-ए-यारी कि इंसाँ को गुनह का अपने बस इक़रार हो जाए इसी को कामयाब-ए-दीद कहते हैं नज़र वाले वो आशिक़ जो हलाक-ए-हसरत-ए-दीदार हो जाए न होगी ख़त्म फिर भी कश्मकश शैख़-ओ-बरहमन की अगर हम-रिश्ता-ए-तस्बीह भी ज़ुन्नार हो जाए समझ लेना वहीं उम्र-ए-रवाँ की आख़िरी मंज़िल जहाँ पर ख़त्म 'अफ़्क़र' जुस्तुजू-ए-यार हो जाए