ज़बून-ओ-ख़्वार हुई है मिरी जिबिल्लत भी मिरे नसीब-ओ-विरासत में से इमामत भी अजब हिरास में था मेरे मौसमों से ग़नीम कि दे रहा था उसे भागने की मोहलत भी वो जब भी आया कम-ओ-बेश मुझ पे वार गया मुझे ये शौक़ कि लाता कभी ज़रूरत भी मैं अपने ज़हर से वाक़िफ़ हूँ वो समझता नहीं है मेरे कीसा-ए-सद-काम में शराफ़त भी समझ रहे थे मैं तन्हा हूँ बे-बसीरत लोग पस-ए-ग़ुबार चली आ रही थी ख़िल्क़त भी अगर सलीक़े से कोई गिरफ़्त में लाए मैं ओढ़ लेता हूँ अक्सर रिदा-ए-तोहमत भी मैं नींद में था कि सरगोशियों के रक़्स में था उधर थी नाका-ए-उम्र-ए-रवाँ को उजलत भी ऐ शहसवार मुझे बादशह बना के तो देख मैं काट डालूँगा सर-रिश्ता-ए-बग़ावत भी उसी ने रख दिया मुझ को समेट कर 'हक़्क़ी' वो जिस के नाम से मुझ को मिली थी शोहरत भी