ज़ब्त की हद से भी जिस वक़्त गुज़र जाता है दर्द होंटों पे हँसी बन के बिखर जाता है रंग भर जाता है फिर इश्क़ के अफ़्साने में अश्क बन बन के अगर ख़ून-ए-जिगर जाता है आज तक आलम-ए-वहशत में पिए जाते हैं कितनी मुद्दत में घटाओं का असर जाता है जाम पी लेते हैं सब देखना है ज़र्फ़ मगर कौन किस वक़्त उठा और किधर जाता है दौर-ए-वहशत में मोहब्बत में जुनूँ में इंसाँ जो न मुमकिन हो किसी तौर वो कर जाता है अपने बेगानों से कुछ बेश थे आज़ारी में बात रह जाती है और वक़्त गुज़र जाता है कितना बे-ख़ौफ़ हो बे-दर्द न क्यूँ हो आख़िर आइना देख के आ'माल से डर जाता है वक़्त कट जाए अगर आलम-ए-तन्हाई में दिल में एहसास-ए-मुलाक़ात ही मर जाता है वो जो दुनिया की हक़ीक़त को समझ ले इंसाँ अपनी मंज़िल की तरफ़ सीना-सिपर जाता है आलम-ए-नाज़ में कुछ भी तो नहीं तेरे सिवा इक तसव्वुर है जो ता-हद्द-ए-नज़र जाता है सैंकड़ों दाग़ चमकते हैं तह-ए-क़ल्ब ऐ 'शौक़' कितनी गहराई में उफ़ अक्स उतर जाता है