ज़ब्त की क़ैद-ए-सख़्त ने हम को रिहा नहीं किया दर्द पे दर्द उठा मगर शोर बपा नहीं किया दुनिया ने क्या नहीं किया हम ने गिला नहीं किया सब से बुराई ली मगर तुम को ख़फ़ा नहीं किया जो भी मुतालिबा हुआ उज़्र ज़रा नहीं किया अब तो नहीं कहोगे तुम व'अदा वफ़ा नहीं किया उम्र गुज़र गई तुम्हें अपना नहीं बना सके सहने को क्या नहीं सहा करने को क्या नहीं किया हाथ में अपना हाथ दो आओ हमारा साथ दो उस का भी दिल तो था मगर दिल का कहा नहीं किया मैं तो मरीज़-ए-इश्क़ हूँ मेरी सेहत सेहत नहीं अच्छा मुझे नहीं क्या तुम ने बुरा नहीं किया शायद वो दिन भी आएगा जिस दिन कहेंगे हम से वो 'अंजुम' मैं शर्मसार हूँ तेरा कहा नहीं किया