जचा न कुछ भी निगाहों को मुंतहा के सिवा झुका ये सर न कहीं उन के नक़्श-ए-पा के सिवा हज़ार मिन्नतें कीं लाख हाथ फैलाए मिला न कुछ भी मगर ज़ख़्म-ए-इल्तिजा के सिवा सिवाए उस के नहीं और कुछ भी पास मिरे तुझे मैं दूँ भी तो क्या दोस्त अब दुआ के सिवा यही हवस है कि सारा जहाँ हो ज़ेर-ए-नगीं जहाँ में कुछ भी नहीं और इस हवा के सिवा ख़ुलूस शर्त है अव्वल भी और आख़िर भी दयार-ए-इश्क़ में सब हेच है वफ़ा के सिवा लबों पे हर्फ़-ए-वफ़ा है दिलों में बैर मगर कहूँ मैं क्या उसे यारों की इक अदा के सिवा अज़ीज़ क्यूँ न हो ऐ 'चाँद' मुझ को ये दौलत बचा भी क्या है मिरे पास अब अना के सिवा