ज़ाद-ए-रह भी नहीं बे-रख़्त-ए-सफ़र जाते हैं सख़्त हैरत है कि ये लोग किधर जाते हैं बे-ख़ुदी में तिरे दीवाने जिधर जाते हैं मंज़िलें पूछती फिरती हैं किधर जाते हैं वक़्त पड़ जाए तो हम सीना-सिपर जाते हैं नाम ही नाम नहीं काम भी कर जाते हैं हाए किस मोड़ पे हालात ने पहुँचाया है आप हम-साए से हम साए से डर जाते हैं ओहदे-दारों में भी ख़ुश्बू है हसीनों की सी वा'दा कर लेते हैं और साफ़ मुकर जाते हैं आप जा सकते नहीं चाँद-सितारों से परे हम वरा-ए-हद-ए-इदराक-ए-नज़र जाते हैं आप के तंज़ सर आँखों पे मगर याद रहे ये वो नश्तर हैं के सीने में उतर जाते हैं जब भी होता है कहीं तज़्किरा-ए-मेहर-ओ-वफ़ा भूले-बिसरे हुए कुछ नक़्श उभर जाते हैं इल्म के साथ सलीक़ा हो तो फिर क्या कहना रंग-ए-उस्लूब से अफ़्कार निखर जाते हैं आप देखें ये मिरी नींद से बोझल आँखें हो चुकी रात इजाज़त हो तो घर जाते हैं ज़ुल्फ़ खोलो तो घनी छाँव मैं कुछ सुस्ता लें दो-घड़ी के लिए साए में ठहर जाते हैं ज़ख़्म अल्फ़ाज़ के नासूर हुआ करते हैं बात ज़ख़्मों कि नहीं ज़ख़्म तो भर जाते हैं हम तो वारफ़्ता-ए-उल्फ़त में हमारा क्या है आज ये रात गए आप किधर जाते हैं कुछ न कुछ होते हैं हर शहर में फ़न के पारख क़द्र होती है जहाँ अहल-ए-हुनर जाते हैं लाख संजीदा सही 'ताज' हसीनों की रविश दिल उड़ा लेने के अंदाज़ किधर जाते हैं